ध्रुवस्वामिनी का प्रकाशन 1933 में हुआ। नाटक में नारी के अस्तित्व, अधिकार और पुनर्लगन की समस्या को उठाया है। इस नाटक में पुरुष सत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोह है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर रचे गए इस नाटक के माध्यम से, नाटककार ने नारी जीवन की जटिल समस्याओं के संबंध में अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया है। यह नाटक इतिहास वृत्त के आलोक में अपने युग की तत्कालीन नारी समस्याओं को सामने रखता है।